Sunday, March 2, 2008

3.12 बनजारा

[ कहताहर - रामप्रीत चौधरी, पो॰ - बेलागंज, जिला - गया]

एगो बनजारा हल । ऊ दूर-दूर तक के व्यापार करऽ हल । कुछ दिना के बाद ओकर सब व्यापार के माल बाहरे डूब गेल । घरे ऊ दुखी होके लौटल । ऊ एकदम गरीब हो गेल आउ लकड़ी लाके बेचे-खाय लगल । एक दिन ओकरा ही एगो हित ही से नेवता आ गेल । सोचलक कि कल्हे के बदल आझे लकड़ी लाके धर दीहीं । जंगल में जाके लकड़ी तोड़े लगल । पेड़ पर एगो खोता देखलक, जेकरा में दूगो लाल-लाल अंडा देखलक । ओकरा ऊ ले लेलक । लकड़ी भी लेके घरे चल आयल । ऊ दूनो अंडा अप्पन दूनो लड़कन के देलक आउ नेवता पर चल गेल । दूनो भाई अंडा से खेलइत हलन । ऊ अंडा केतनो पटकला पर न फूटे । दूनो भाई सोचलक कि अंडा रहइत तो फूट जाइत हल, से ऊ एगो सेठ भीर गेल । सेठ भीर जाके अंडा देखैलक तो सेठजी कहलन कि हम एकरा दस हजार रुपेया देबवऽ । दूनो भाई अंडा लेके उहाँ से चल देलक आउ सोचलक कि ई अंडा न हे, कोई दामी पत्थर हे । से आउ दरब मिलत । दोसर सेठ भीर ओहनी गेलन आउ ओकरा देखौलन । सेठ देख के बीस हजार देवे ला कहलक । तेसर सेठ भीर जाके ओहनी अंडा देखौलन, सेठ ओकरा चालीस हजार देवे ला तैयार भेलन तो लड़कवन दे देलन आउ सेठजी ओहनी के सब रोपेया दे देलन । ओकर बाप अयलन तो रुपेया देखलन आउ कहाँ से एतना रुपेया आयल से पूछलन तो लइकन सब हाल कह सुनौलन । बनजारा कहलक कि जेकर अंडा में एतना गुन हे तो ओकर चिरई में केतना गुन होयत । से ऊ ओही खोता भीर गेल, जहाँ से अंडा लौलक हल आउ चिरई के घर ले औलक । आन के पिंजड़ा में धर देलक । बनजारा रोपेया लेके फिना व्यापार करे चल देलक ।

********* Entry Incomplete **********

No comments: