Wednesday, March 5, 2008

4.07 चचा-भतीजा

[ कहताहर - साधुशरण सिंह, मो॰ - मखदूममाबाद, जिला - गया ]

दूगो बहादुर छत्री हलन । दूनो चचा-भतीजा भी हलन । दूनो चचा-भतीजा एक दिन कुटुमतारे चललन । कुछ दूर चलला पर थकान मालूम भेल तो चचा कहलन कि एगो कथा कहऽ । भतीजा कहलक कि हमरा एको कथा न आवे । चचा जोर लगौलन कि कथा से रास्ता भी कटत आउ मन भी लगत । भतीजवा के कथा तो आवऽ न हल बाकि चचवा के तंग कयला पर गोड़ से एगो जूता निकाललक आउ तड़ातड़ जमा देलक । जूता खाके चचा बिगड़ल आउ ओकरा रगेदलक । भतीजा भागल आउ कुछ दूर आगे निकल गेल । उहाँ कुछ नट डेरा गिरवले हल । नटवा पूछलक कि रे बाबू, तूँ कहाँसे आवइत हें आउ कहाँ जयवे ? भतीजा बोलल कि लंका से आवइत ही, पलंका जायम । ऊ लंका के समाचार पूछलक तो जवाब देलक कि कह सुनइअउ कि कर देखइअउ । नटवा कहलक कि करके देखाइए दे । तब भतिजवा कहलक कि तोहनी अपन सब समान जमा कर । समान जमा करवा के ऊ सलाई बार देलक । हह-हह लहरे लगल तो नटवा ओकरा खदेरलक । ऊ भाग चलल आउ कुछ दूर चल गेल कि एगो अहीरिन माठा बेचे जाइत हल । देखलक तो अहीरिनियाँ कहकई कि एगो कथा कह जे खट्टा भी लगे, मीठा भी लगे आउ सवाद भी लगे, साथे-साथ रस्ता भी कटे । त ऊ पीछे से एक मुक्का ओकर टहरी पर मार देलक आउ टहरी के फूटे से माठा गिरे लगल । कपार से माठा मुँह-ओठ आउ नीचे तक आ गेल ।

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