Tuesday, August 1, 2017

सूची : 8. विविध कथा

मगध की लोककथाएँ :  संचयन
सम्पादक - डॉ० राम प्रसाद सिंह

प्रथम संस्करण - १६ अप्रैल १९९७ ई०
प्रकाशक - मगही अकादमी, मगही लोक, तूतवाड़ी, गया


8.   विविध कथा
    





8.17   घमघट

8.20   ढपोरशंख

Thursday, March 27, 2008

8.20 ढपोरशंख

[कहताहर - पंकजवासिनी, द्वारा सुरेन्द्र साह, पटेलनगर, पटना]

एगो बाबा जी हलन । ऊ बड़ी गोल-गोल बात बतियावऽ हल । उनकर ई खूबी हल कि ऊ कोय के भी पुछला पर इया कोय काम अढ़ैला पर खूब लम्बा-चौड़ा बात बतियावऽ हलन बाकि करऽ कुच्छो न हलन । उनकर ई आदत से भला आदमी के बड़ी परेशानी होवऽ हल ।

एक तुरी ऊ जंगल से चलल आ रहलन हल कि उनका बीच राह में पड़ल एगो शंख मिलल । ऊ शंख के उठा के ले ले अयलन । घरे आके ओकरा धो-धा के ऊ पहले ओकर पूजा कयलन फिनू ओकरा फूँकलन । ओकरा में से अवाज आयल - "सुखी रहऽ बचवा ! जे मन के चाहऽ हवऽ से माँगऽ ।"

बाबा जी के ऊ घरी बड़ी भूख लगल हल । ऊ शंख के परनाम कहलन आउर कहलन - "हमरा बड़ी भूख लगल हे । से हमरा खूब बढ़िया भोजन करावऽ ।" उनकर प्रार्थना सुन के शंख बजलक - "ल लड्डू खाऽ ! पूड़ी खाऽ ! इमरिती खाऽ ! बर्फी खाऽ ! पेड़ा खाऽ ! "बाजा ती खुस होके कहलन - "बस, बस ! पहले इतने दे दऽ ।" ऊ आस जोहइत में बइठल रहल बाकि कुच्छो न आयल । बाद में ऊ अब भी कुछ मँगलन, ऊ शंख बार-बार ओयसने देवे के खूब लम्बा-चौड़ा हाँक देत बाकि कभियो कुच्छो देवे नऽ !

बाबा जी समझ गेलन के ऊ शंख उनकरे नियन खाली हाँके ओला ढपोरशंख हे, जो बात तो खूब लुभावे ओला कहऽ हे बाकि कुच्छो करऽ न हे !

8.19 अतिथि-सत्कार

[कहताहर - कुलवन्ती देवी, चुटकिया बाजार, सिमली शाहदरा, पटना सिटी]

एगो अदमी अपना के भारी शहंशाह समझऽ हलक बाकि ऊ हलक भारी कंजूस । से ओकरा हीं कोय अतिथि जदि आवऽहलक तऽ ऊ ओकरा कोय-न-कोय बहाना बना के टरका दे हलक ।

एक तुरी ओकर एगो बड़ा पुराना इयार ओकर घर आयल । अयला पर ऊ ओकरा अप्पन बैठका में बैठयलक, ओकर कुसल-क्षेम पुछलक आउ बचपन के इयाद करके हँसी-मजाक कयलक । ओकरा पैर धोवे ला ऊ पानी भी मँगौलक ।

भोर के बेरिया हल । जब बातचीत करइत कुछ समइया बीत गेल तऽ अप्पन बोली में असीम प्यार भर के ऊ कहलक - "आज एकादसी हवऽ । हमनी हीं सबकी उपवास हवऽ । कल रात के कुछ बासी बचल तऽ हे बाकि तूँ बसिया तो खैबऽ नऽ । से ई घरवा से निकलला पर अगलके मोड़ पर बंसी हलवाई के दूकान हवऽ । से तूँ उहाँ कचौरी जलेबी भरपेट जरूर खा लिहऽ, तोरा हम्मर किरिया ।"

8.18 पैंक के करमात

[कहताहर - भूपेन्द्र नाथ, मो॰पो॰ - बेलखरा, जिला - जहानाबाद]

एक ठो पैंक हल । ऊ एगो बस्ती में गेल । उहाँ कहलक कि हमरा तेरह हर के बैल हे, बाछी-पोछी के लेखा नऽ हे । इहाँ आ के देखलक कि बाड़ी बाछी हे जे अइसन चोता हगे हे कि अँगनो लीपे भर नऽ हे । बड़ा दगा देलक पैंक ।

कह गेल पैंक कि तेरह कोठी चाउर हे, कोठा-खुद्दी के लेखा-जोखा नऽ हे । आँख से देखली - पइला पर धान, माँड़ो चुये न हे । बड़ा दगा देलन पैंक !

कह गेलन पैंक कि सोना-रूपा ढेर हे, काँसा-पीतर के लेखा-जोखा नऽ हे । आँखि देखवलन कि फुटली छिपनिया कि पनियो रहे योग नऽ हे । बड़ा दगा देलन हो पैंक !

कह गेलन पैंक कि तेरह थान लूगा हे, फाटल-पुरान के लेखा-जोखा नऽ हे । आँखि देखवलन फटली लुगरिया जे पेंवनो साटे जोग नऽ हे । बड़ा दगा देलऽ हो पैंक ।।

8.17 घमघट

[कहताहर - भूपेन्द्र नाथ, मो॰पो॰ - बेलखरा, जिला - जहानाबाद]

लाल गोहुम के उजर चपाती आउ धीवन के ठट्ठा,
हम छानत हैं मोसाफिर, तू खाव तऽ बाजे घमघट ।।
घमघट के माने नऽ सखी, घमघट के माने नऽ ।।

कोठा ऊपर कोठरी, तर बिछाओ खाट ।
घमघट के माने नऽ सखी, घमघट के माने नऽ ।।
हम-तुम मोसाफिर मौज करो, तब बाजे घमघट ।।

लम्बा डाँड़ पात पुराना, सौंफ पुराना, सौंफ-मिरीच के ठट्ठा
भांग ले भंगोटन ले आ, तब बाजे घमघट ।।
घमघट के माने एही सखी, घमघट के माने एही ।।

8.16 अनमोल मोती सुरूपा

[कहताहर - रामचन्द्र मिस्त्री, स॰शि॰, मो॰-पो॰ - सोननगर, जिला - औरंगाबाद]

सात समुन्दर गंडक पार एगो मधुआ के गाँव हल, जेकरा में भोला नाम के मछुआरा रहऽ हल । ऊ समुन्दर से मछरी मार के खा-पीआऽ हल । कभी-कभी मोती भी मिल जाय तो ऊ काली माई के वरदान समझऽ हल । भोला बूढ़ा भेल तो तीरथ करे जाय लगल बाकि ओकर बेटा रोक देलकइन । एक तुरी बेटा समुन्दर में गोता लगौलक तो ऊ फिन कहिनो नऽ निकलल । भोला रो-धो के संतोख कैलक । कुछ दिन के बाद ओकर मसोमार पुतोह से एगो पोती भेलई आउ पुतहियो मर गेलई । भोला बेचारा टुअर पोती के पोसे-पाले लगल । नाव पर ले जा के पोती के सुता देवे आउ अपने समुन्दर में डुबकी लगा के मछरी-मोती निकाले । ई तरी गते-गते पोती कुछ सेयान भेलई तो ऊ दादा के काम में मदद करे लगल । अइसेहीं काम चलइत हल ।

************ Entry Incomplete ************

8.15 बिसवासघाती अउरत

[कहताहर - रामचन्द्र मिस्त्री, स॰शि॰, मो॰-पो॰ - सोननगर, जिला - औरंगाबाद]

एगो सहर में भारी राजा हलन । उनकर चार गो बेटा हलन । बड़का लड़का बड़ा बढ़िया हलन तइयो सहर के चुगला सब राजा भीर उनकर सिकाइत करके दू बरस दू बरस ला जंगल में निकलवा देलक । राजकुमार जंगल में जाय लगलन तो उनकर अउरत 'चन्द्रप्रभा' भी घिघिआ के साथ हो गेलथिन । ऊ कहलकथिन कि "बिन मरद के अउरत कइसे जीअत । से हमहूँ अपने के साथ जंगले में रहब !"

************ Entry Incomplete ************