Monday, February 11, 2008

1.24 सोना के अँगूठी

[ कहताहर - सूर्यदेव सिंह, ग्राम - दनई, जिला - औरंगाबाद ]

एगो राज में राजा आउ वजीर के लइका में बड़ी दोस्ती हल । एको छन ओहनी एक-दोसर से अलगे नऽ रहऽ हलन ।

एक दिन वजीर के लइका अप्पन इयार से मिले उनकर महल में गेलन । बाकि उहाँ न देखके समझलन कि इयार रनिवास में होयतन । एही सोंच के ऊ रनिवास में चल गेलन । उहाँ खाली रानी तोसक-गलीचा लगा के सूतल हलन । वजीर के लइका भी निसा के सूर में पलंग पर जाके पड़ रहलन । ओकरा भी नीन आ गेल । थोड़े देर में जब वजीर के बेटा के नीन टूटल तऽ ऊ उठके चल गेल आउ ओकर हाथ के अंगूठी पलंग पर गिर गेल । ओने राजा अयलन आउ अंगूठी देखके चुपचाप उठा लेलन । ओही दिन से ऊ रानी से बोल-चाल बंद कर देलन । ई से रानी के बड़ी तकलीफ होयल तब रानी अप्पन नइहर में अप्पन भाई-बाप के पास चिट्ठी लिखलन –

बाबा बाग लगायके, लाखो-लाख लुटाय ।
रसभरी रसीली में, भौंरा घुर-फिर जाय ।।

अइसन पाँती देख के राजा अप्पन बेटा के दे देलन । बेटा समझ गेलन आउ नाउ के लेके बहिनही चल देलन । जब उहाँ पहुँच गेलन, पानी-उनी पीके, साँझ खनी राजा के बेटा, वजीर के बेटा, नउवा आउ अपने चारों घूमे-फिरे चललन । गाँव से दूर जा के एगो बढ़िया पोखरा पर बइठ गेलन । टहटह इंजोरिया रात हल । पोखरा में फूल खिलल हल । चारों बइठ के चौपड़ खेले लगलन । केलइत-खेलइत राजा के साला कहलन कि -

निरमल जल तलाब में, अति ही पवित्र-पवित्र ।
सो जल काहे न पिये, सुनहुँ हमारे मोत्र ।। सत् रह ।।

तब राजा एतना सुनके मन-ही-मन सोच के कहलन -

कर पंजे के बीच में, तामें लाल समाय ।
सो मैं देखा पलंग पर, नीर पिया न जाय ।। सत् रह ।।

एतना सुनके चौपड़ खेलइत-खेलइत वजीर के लइका कहलन -

घटा गरजे, बिजली चमके, लागे न काहूँ अंत ।
माय-बहिनिया जा के, गये पलंग पर बैठ ।। सत् रह ।।

ओकरा बाद नउवा के पाँसा आयल तो सोच-विचार के कहलक -

चतुरन में चतुरन मिले, लगे न काहूँ अंत ।
अभाग हे ऊ नारी के, कि मूरुख मिलल कंत ।। सत् रह ।।

एकरा बाद राजा के असली बात हिरदय में समा गेल । फिनो सबहे घरे अयलन आउ राजा-रानी खुसी से रहे लगलन ।

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