Monday, February 11, 2008

1.25 नाग के अँगूठी

[ कहताहर - सूर्यदेव सिंह, ग्राम - दनई, पो॰ - जाखिम, जिला - औरंगाबाद ]

एगो बड़का राजा हलन । उनका एगो लइका हल । कुछ दिन के बाद राजा मर गेलन तब रानी लइका के साथे रहे लगलन । एक दिन लइका माय से पूछलक कि हम बेपार करे जाइत ही । माय लइका के छौ सौ रूपेआ देलक । लइका रोपेआ लेके चल देलक । राह में कई अदमी मिल के एगो बिलाई के मारइत हलन । राजा के लइका के देख के मोह लगल । से ऊ कहलन कि बेचारी बिलाई के जान काहे मारइत हऽ ? एकरा छोड़ दऽ । तब एकरे पर, राजा के लइका पर सबहे खिसिया गेलन कि ई हमर सब दूध-दही खा जाहे आउ बरबाद कर देहे । एकरे पर राजा के लइका कहलक कि ई तोर केतना रोपेआ के समान खराब कैलक हे । हम तोरा दे देव । सबे कहलक कि 'दू सौ रूपेआ के' । झटपट दू सौ रूपआ देके ऊ बिलाई छोड़ा देलक ।


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