[कहताहर -- ईश्वर दयाल, मो० पो० - सिकंदरा, जिला - जमुई ]
एगो गाँव में एगो गरीब बाबा जी हलन । ऊ दिन भर माँग के अनाज जमा करऽ हलन आउ बेर डुबला के बाद जे माँगऽ हलन ओही बना के खा हलन । एक रोज मँगला के बाद झोल-झोलान में एगो कुआँ भिरू जा के अदाह जोरलन आउ ओकरा पर तसला रख के पानी डाल देलन । पानी गरमाय लगल तब तक ऊ इनरा पर जा के पानी से चाउर धोबे लगलन । ओही घड़ी एगो नया दुलहिन उहाँ पानी भरे आयल । डोल से पानी भर के घइला भरलक आउ घइला कपार पर उठावे लगल तऽ बाबा जी ओकरा एगो बुझौनियाँ बुझा देलन –
"जेकर सोर पताल में खिले, उपरे ढूले अंडा ।
ई बुझौनियाँ बुझिहँऽ गोरी, तब उठइहँऽ भण्डा ।।"
गोरी बुझौनियाँ न बूझलक आउ बिना बुझले ओकरा घइला उठावे पर रोक लगल हल । से ओहू एगो बुझौनियाँ बुझा देलक –
"बापक नाँव से पूतक नाँव, नाती के नाँव कुछ आउर ।
ई बुझौनियाँ बुझिहँऽ पाँड़े, तब मेरइहँऽ चाउर ।।"
अब बाबा जी भी चाउर धो के मेरावे ला बइठल हथ । गोरी नऽ घड़ा उठा रहल हे नऽ बाबा जी चाउर मेरा रहलन हे ।
एने नया दुलहिन (गोरी) के सास देर होते देखलक तऽ घबरायल । ऊ पनघट पर आयल तो पुतोह आउ बाबा जी के चुपचाप खड़ा देखलक । ऊ घड़ी खिस्सा-कहानी आउ बुझौनियाँ सुनला इया बुझला बिना अगाड़ी के कोई काम नऽ हो हल । से सास उहाँ जयते बात समझ गेल आउ एगो तेसर बुझौनियाँ बुझा के एहनी के काम में लगे के रस्ता साफ कर देलक । सास बोलल –
"जेकर मद से मयगर भाते, तेली लगावे घानी ।
तू मेरावऽ चाउर पाँड़े, घड़ा उठावे धानी ।।"
ई तरी बुझौनियाँ से लगल बंधन बुझौनिये से टूट गेल आउ बाबा जी खलखलाइत अदहन में चाउर मेरा देलन तो चाउर तुरते सीझ गेल । एन्ने गोरी भी अप्पन पानी भरल घइला के कपार पर उठा के घरे ले गेल आउ मरद से बाबा जी के हाल सुनौलक । ओकर मरद खिस्सा सुने के सौखीन हल । से ऊ बाबा जी के अप्पन दूरा पर सूते ला ले गेल जहाँ रात भर बुझौनियाँ आउ खिस्सा से लोग के मन बहलइत रहल । ठीके नऽ कहल गेल हे कि खिस्सा दिन भर के थकान दूर कर दे हे । खिस्सा भेलो खतम -- पइसा भेलो हजम । कहे ओला झूठा, सुने ओला सच्चा ।
एगो गाँव में एगो गरीब बाबा जी हलन । ऊ दिन भर माँग के अनाज जमा करऽ हलन आउ बेर डुबला के बाद जे माँगऽ हलन ओही बना के खा हलन । एक रोज मँगला के बाद झोल-झोलान में एगो कुआँ भिरू जा के अदाह जोरलन आउ ओकरा पर तसला रख के पानी डाल देलन । पानी गरमाय लगल तब तक ऊ इनरा पर जा के पानी से चाउर धोबे लगलन । ओही घड़ी एगो नया दुलहिन उहाँ पानी भरे आयल । डोल से पानी भर के घइला भरलक आउ घइला कपार पर उठावे लगल तऽ बाबा जी ओकरा एगो बुझौनियाँ बुझा देलन –
"जेकर सोर पताल में खिले, उपरे ढूले अंडा ।
ई बुझौनियाँ बुझिहँऽ गोरी, तब उठइहँऽ भण्डा ।।"
गोरी बुझौनियाँ न बूझलक आउ बिना बुझले ओकरा घइला उठावे पर रोक लगल हल । से ओहू एगो बुझौनियाँ बुझा देलक –
"बापक नाँव से पूतक नाँव, नाती के नाँव कुछ आउर ।
ई बुझौनियाँ बुझिहँऽ पाँड़े, तब मेरइहँऽ चाउर ।।"
अब बाबा जी भी चाउर धो के मेरावे ला बइठल हथ । गोरी नऽ घड़ा उठा रहल हे नऽ बाबा जी चाउर मेरा रहलन हे ।
एने नया दुलहिन (गोरी) के सास देर होते देखलक तऽ घबरायल । ऊ पनघट पर आयल तो पुतोह आउ बाबा जी के चुपचाप खड़ा देखलक । ऊ घड़ी खिस्सा-कहानी आउ बुझौनियाँ सुनला इया बुझला बिना अगाड़ी के कोई काम नऽ हो हल । से सास उहाँ जयते बात समझ गेल आउ एगो तेसर बुझौनियाँ बुझा के एहनी के काम में लगे के रस्ता साफ कर देलक । सास बोलल –
"जेकर मद से मयगर भाते, तेली लगावे घानी ।
तू मेरावऽ चाउर पाँड़े, घड़ा उठावे धानी ।।"
ई तरी बुझौनियाँ से लगल बंधन बुझौनिये से टूट गेल आउ बाबा जी खलखलाइत अदहन में चाउर मेरा देलन तो चाउर तुरते सीझ गेल । एन्ने गोरी भी अप्पन पानी भरल घइला के कपार पर उठा के घरे ले गेल आउ मरद से बाबा जी के हाल सुनौलक । ओकर मरद खिस्सा सुने के सौखीन हल । से ऊ बाबा जी के अप्पन दूरा पर सूते ला ले गेल जहाँ रात भर बुझौनियाँ आउ खिस्सा से लोग के मन बहलइत रहल । ठीके नऽ कहल गेल हे कि खिस्सा दिन भर के थकान दूर कर दे हे । खिस्सा भेलो खतम -- पइसा भेलो हजम । कहे ओला झूठा, सुने ओला सच्चा ।
No comments:
Post a Comment